Friday, February 8, 2013

मैंने ऐसा क्यों किया : आम आदमी के राजनीती में उतरने की व्यथा एवं कथा

मेरे प्रिय भारतवासी, 

                                                                                                                                                                
यदा कदा  ये सवाल मेरे सामने आ ही जाता की मैं इस काम में कैसे कूद गया,तो मैंने सोचा की थोड़े विस्तार से अपनी पूरी कहानी आप से साझा करूँ . 
 

मेरे मोहल्ले,जहाँ मैं अपने परिवार समेत रहता हूँ ,उसका इतिहास काफी पुराना है लेकिन जब से मैंने देखा वहां से शुरू करता हूँ .मेरे घर के सामने से एक नाली बहती थी जो पुरे मोहल्ले की गन्दगी के निकासी का एकमात्र साधन था 
उस नाली में पहले पानी तुरंत निकल जाता था, निकासी लेकिन पिछले 40-50 वर्षों से उस गन्दी नाली में कचरे के कारण पानी की निकासी उतने अच्छे से नहीं हो पा रही थी.

मोहल्ले वालों ने  उसे साफ़ करने का जिम्मा दुसरे व्यक्ति को दे दिया। शुरूवात में उसने ठीक से काम किया . हमें अपना करियर बना कर अच्छे से घर चलाना था तो जैसे ही हम सब थोड़े व्यस्त हुए की इस आदमी ने कामचोरी के कारण कचरा दूर जाकर फेंकने के बदले नाली में डालने लगा । धीरे-धीरे पानी जमा होने के कारण बदबू और मच्छर दोनों से जीना दूभर होने लगा। 

हमारा परिवार इस बात से वाकिफ था की उसमे तो बहुत गन्दगी है,आखिर साफ़ करेगा कौन .हमने सोचा के किसी और को जिम्मा दिया जाये,तो पुराने आदमी के एक साथी को मौका दिया। लेकिन  ये बाकी से दो कदम आगे निकला और इसने कुछ पहुँच वाले खास लोगों से पैसे लेकर सिर्फ उनके घरों के सामने सफाई की और उनका पूरा कचरा हमारी नाली में फेंकने लगा .एक दिन बात हद से गुजर गयी जब पहले से ही मच्छरों और बदबू से परेशान हम लोगों के घर नाली का पूरा पानी भरने लगा .

दो साल तक दौड़ दौड़ के दोनों-तीनो सफाई वालों के पास गए लेकिन आखिर में यही समझ आया के ये लोग पूरी तरह से बिक चुके हैं और अब तो ये इतने बड़े हो चुके हैं की ये अपनी जिम्मेदारियों को भी ठेके पर दूसरों को दे चुके. हमारे मोहल्ले के अरविन्द भाई साहब ने हमारे पड़ोसी एवं जाने माने गांधीवादी ताउजी के साथ सफाई वाले ठेकेदारों के चक्कर लगा के थक चुके थे, ताउजी धैर्यवान व्यक्तित्व हैं, उन्होंने मोहल्ले वालों को नाली में कम गन्दगी डालने हेतु जागरूक करना शुरू किया, साथ ही वो किसी अच्छे सफाई वाले ठेकेदार की खोज भी करने लगे।

हमारे अरविन्द भाई साहब को तो ये स्पष्ट हो गया की ताउजी को ये धूर्त सिर्फ इधर-उधर भटकायेंगे और तब तक मोहल्ले वाले ये बदबू कैसे सह पाएंगे ? एक दिन झुंझलाकर उन्होंने हमारी मीटिंग में पूछा, की क्या हम को खुद ही झाड़ू लेकर नाली साफ़ करने निकल पड़ना चाहिए? तभी उन ठेकेदारों की बुद्धि ठिकाने पर आ सकती ।

          बात मेरे अधिकतर साथियों को जंची, मैंने सोचा की अरविन्द भाई का घर थोड़ी ऊँचाई पर होने के कारण थोड़ा सुरक्षित है, फिर भी जब वो ये सोच रहे तो मेरे तो घर में पानी जमा हो रहा ,तो मेरे तो अपने घर पर ये परेशानी आई है ,ये सोच मैंने भी अरविन्द जी का साथ देने का फैसला लिया .

           दुसरे दिन सुबह झाड़ू ले कर घर से निकलने लगा, तब मेरे हाथों में झाड़ू देख कर छोटे भाई ने कहा के भैया ये तो बड़ा गंदा काम है ,
खूब बदबू भी आएगी, 
इस से अच्छा हो की आप भी सफाई वाले को थोड़े पैसे देकर अपने घर के सामने की नाली साफ़ करवा लेते 
वैसे भी आप खुद इस काम में लगोगे तो उन ठेकेदारों को हजम नहीं होगा 
और फिर वो गंदे लोग हैं,
............कुछ भी कर सकते हैं.

मैं सोच में लगा हूँ की अपने प्यारे छोटे
 भाई को ये कैसे समझाऊ की किस तरह हालात से मजबूर होकर,
सफाई के ठेकेदारों के लिए अपने क्रोध को पीकर,
मैंने नाली में उतरने का फैसला लिया.

गन्दा है तो गन्दा ही सही............
गंदे लोगों से लड़ना पड़े तो वो भी सही..........
मुझमे भी गन्दगी लिपटेगी तो वो भी सही............
मुझे इसका अनुभव नहीं तो कोई पेट से सीखकर नहीं आता, 2-4 बार गिर कर सीखना पड़े तो वो भी सही.......
कुछ लोग हसेंगे,तो कुछ मुह में रुमाल ढ़ाक कर जल्दी से गुजर जायेंगे तो वो भी सही...........
लेकिन अब और नहीं, ........
अब और नहीं, मेरे घर परिवार को बदबू और गन्दगी अब और नहीं........
अब कभी नहीं .
अब कभी नहीं ..........अब कभी नहीं .

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